क्या बिहार की राजनीति फिर लौट आई ‘जाति’ के पुराने रास्ते पर?

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तीन दशक बाद भी बिहार की सियासत में कर्पूरी ठाकुर का नाम सामाजिक न्याय की पहचान है, पर क्या उनकी सोच को सच में निभा रहे हैं उनके शिष्य? टिकट बंटवारे के आँकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं।

नई दिल्ली: कर्पूरी ठाकुर वह नाम, जिसने बिहार की राजनीति को पिछड़ों और वंचितों की आवाज़ दी। तीन दशक बीत जाने के बाद भी उनके नाम पर सियासत गरम है। लेकिन अब बड़ा सवाल यह है कि क्या उनके शिष्य लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार वाकई उस ‘सामाजिक न्याय’ की भावना को जीवित रख पाए हैं, जिसके लिए कर्पूरी ठाकुर ने जीवन समर्पित किया था?

साल 2022 में जब महागठबंधन सरकार बनी, तो नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने मिलकर जातीय जनगणना कराई। इसका मकसद था यह जानना कि राज्य की आबादी में ओबीसी (OBC) और अतिपिछड़ा वर्ग (EBC) की हिस्सेदारी कितनी है, ताकि उसी अनुपात में राजनीतिक प्रतिनिधित्व तय हो सके। नतीजा आया तो सब चौंक गए, बिहार की आबादी का लगभग 63 प्रतिशत हिस्सा ओबीसी और ईबीसी वर्गों का है। वहीं, सवर्ण जातियाँ महज़ 10.6 प्रतिशत ही हैं।

यह रिपोर्ट आई तो लगा कि अब बिहार में राजनीति का चेहरा बदलेगा कि “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” अब हक़ीक़त बनेगी। मगर चुनावी टिकट बंटवारे ने इस नारे की चमक फीकी कर दी।

राश्ट्रिय जनता दल (RJD) ने अपने पारंपरिक वोट बैंक पर भरोसा जताते हुए 28 यादवों और 6 मुसलमानों को टिकट दिया। बाकी सीटों पर सवर्ण और अतिपिछड़े वर्ग के कुछ नाम हैं, लेकिन संख्या अब तक साफ़ नहीं की गई है।

वहीं, भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने अपने ऊपरी जाति के समर्थन को मज़बूत करते हुए 49 टिकट (48.5%) सवर्णों को दिए हैं। ओबीसी समुदाय को 34 सीटें (33.7%) मिलीं, जिनमें 6 यादव, 15 वैश्य, 7 कुशवाहा और 2 कुर्मी शामिल हैं। ईबीसी समुदाय को 10 सीटें (9.9%), जबकि अनुसूचित जाति (SC) के उम्मीदवारों को 12 सीटें (11.9%) मिली हैं।

कांग्रेस पार्टी ने अब तक घोषित 48 उम्मीदवारों में से 17 (35.4%) सवर्णों को टिकट दिया, जिनमें 8 भूमिहार, 6 ब्राह्मण और 3 राजपूत शामिल हैं। ओबीसी समुदाय को 10 सीटें (20.8%) दी गईं, वहीं मुस्लिम, ईबीसी और एससी समुदायों को लगभग समान अनुपात में टिकट मिले।

लेफ्ट पार्टियाँ (CPI, CPI(M), CPI-ML) ने कुल 29 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं। इनमें से 15 ओबीसी, 8 एससी, 2 अल्पसंख्यक, 2 भूमिहार और 1 राजपूत उम्मीदवार शामिल हैं।

नीतीश कुमार की जदयू (JD(U)), जो खुद को गैर-यादव पिछड़ों और अतिपिछड़ों की आवाज़ बताती है, ने 37 ओबीसी (36.6%), 22 ईबीसी (21.8%), 15 एससी (14.9%) और 1 एसटी (1%) उम्मीदवार उतारे हैं। वहीं, 22 सवर्ण उम्मीदवारों को भी टिकट दिया गया है।

इन आँकड़ों से साफ़ झलकता है कि सभी दल जातीय समीकरण की राजनीति कर रहे हैं, लेकिन कर्पूरी ठाकुर के “समान प्रतिनिधित्व” के सपने को सियासी गणित में उलझा दिया गया है।

चुनाव आयोग के मुताबिक, 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में मतदान होगा और 14 नवंबर को नतीजे आएँगे। बिहार की कुल 243 विधानसभा सीटों के लिए लगभग 7.42 करोड़ मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे।

2020 के चुनावों में बीजेपी ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें से 74 जीतीं। वहीं जदयू को 43 सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार समीकरण पहले जैसे नहीं हैं जाति और सत्ता का गणित बदल चुका है, मगर सवाल वही है: क्या बिहार की राजनीति अब भी कर्पूरी ठाकुर के सपनों के अनुरूप चल रही है, या फिर ‘सामाजिक न्याय’ एक बार फिर नारे तक सीमित रह गया है?

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