21वीं सदी का लोकतंत्र या परिवारवाद का खेल? बिहार चुनाव ने खोली सियासत की सच्चाई

बिहार में रिकॉर्ड वोटिंग ने लोकतंत्र की ताकत दिखाई, लेकिन परिवारवाद की जड़ें अब भी गहरी हैं। जानिए कैसे राजनीति एक पारिवारिक व्यवसाय बन गई है और क्यों भारत के युवाओं को इस चक्र को तोड़ना होगा।

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बिहार में रिकॉर्ड वोटिंग ने जहां लोकतंत्र की ताकत दिखाई, वहीं इसने हमारी सबसे बड़ी कमजोरी को भी उजागर कर दिया। राजनीति में परिवारवाद का शिकंजा, जो आज भी देश के विकास के रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध बना हुआ है।

बिहार विधानसभा चुनाव का पहला चरण पूरा हो चुका है। इस बार राज्य में करीब 65 प्रतिशत मतदान हुआ, जो अब तक का सबसे ज्यादा आंकड़ा है। चुनाव आयोग ने इसे लोकतंत्र की जीत बताया, लेकिन इस लोकतांत्रिक उत्सव के बीच एक सवाल गूंज रहा है। क्या भारत का लोकतंत्र अब परिवारों के कब्जे में जा चुका है?

राजनीति में “परिवर्तन” का नारा हर चुनाव में गूंजता है, लेकिन नतीजा वही होता है। राजद, कांग्रेस, या नई जन सुराज पार्टी सबने “नई राजनीति” का वादा किया, मगर टिकट बंटवारे में वही पुराने चेहरे और पारिवारिक नाम सामने आए। आंकड़ों के मुताबिक, बिहार विधानसभा के करीब 26 प्रतिशत विधायक राजनीतिक परिवारों से आते हैं, जबकि राजद में यह संख्या 42 प्रतिशत तक पहुंचती है। राजनीतिक परिवारों के समर्थक अक्सर कहते हैं कि “नेता के बेटे या बेटी का राजनीति में आना गलत नहीं।” बात सही है, लेकिन समस्या सरनेम में नहीं उस सोच में है, जो राजनीति को वंशानुगत अधिकार बना देती है। इससे योग्यता की जगह वंश, और जनता की जगह परिवार सबसे अहम बन जाता है।

कांग्रेस पार्टी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। पार्टी का अध्यक्ष कोई भी हो, फैसले हमेशा “हाईकमान” के नाम से जाने जाते हैं। वहीं, समाजवादी पार्टी, राजद, तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां भी उसी रास्ते पर हैं जहां सत्ता परिवार के दायरे से बाहर नहीं जाती। भाजपा खुद को इस राजनीति से अलग बताती है, लेकिन यह भी सच है कि परिवारवाद से वह भी पूरी तरह अछूती नहीं है। फर्क सिर्फ इतना है कि भाजपा में वंशवादी नेताओं पर संगठनात्मक अनुशासन कायम रहता है। भारत में “सेक्युलरिज़्म” और “समावेशिता” के नारे तो बहुत लगते हैं, लेकिन अक्सर वे राजनीतिक दिखावे तक सीमित रहते हैं। कुछ नेता वोट बैंक की राजनीति में “वंदे मातरम” से दूरी बनाते हैं या “सनातन धर्म” को खत्म करने योग्य बताते हैं। यह सच्चा धर्मनिरपेक्षता नहीं बल्कि चयनात्मक सहिष्णुता है, जो समाज को और अधिक विभाजित करती है।

बिहार की राजनीति आज भी जाति, पैसा और ताकत के इर्द-गिर्द घूम रही है। यहां टिकट विचारधारा या योग्यता पर नहीं, बल्कि सामाजिक समीकरणों और आर्थिक ताकत पर तय होता है। नई पीढ़ी को सिर्फ मंच सजाने, रैली में ताली बजाने और प्रचार करने का मौका दिया जाता है, लेकिन नेतृत्व नहीं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि आज का युवा इस व्यवस्था को सामान्य मान चुका है। उसे पता है कि टिकट उन्हीं को मिलेगा जो किसी प्रभावशाली परिवार से हैं या जिनके पास धन और जातीय समर्थन है। यही कारण है कि राजनीति में नए विचारों और सच्चे बदलाव की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है।

इसके साथ ही, मुफ्तखोरी की राजनीति यानी “फ्रीबी कल्चर” भी तेजी से बढ़ रहा है। नेता अब विकास की जगह वोट पाने के लिए मुफ्त योजनाओं का लालच देते हैं बिजली, गैस, लैपटॉप या नगद सहायता। इससे जनता आत्मनिर्भर नहीं बनती, बल्कि निर्भर हो जाती है। भारत के लोकतंत्र की असली जीत तब होगी जब नागरिक और खासकर युवा अपने वोट को किसी सरनेम या जाति से नहीं, बल्कि योग्यता, ईमानदारी और जिम्मेदारी के आधार पर देंगे। लोकतंत्र केवल मतदान का नाम नहीं, बल्कि जवाबदेही की भावना है। जब तक राजनीति परिवारों की जागीर बनी रहेगी, तब तक देश “विकास” और “बदलाव” के बीच झूलता रहेगा, लेकिन सच्चा “परिवर्तन” कभी नहीं आ पाएगा।

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