बिहार में सियासत कभी भी तटस्थ नहीं रही, यहां चुनाव अक्सर जातिगत समीकरणों और स्थानीय हितों के इर्द-गिर्द घूमते रहे हैं। लेकिन हाल के वर्षों में यह धारणा गहराती जा रही है कि राजनीति का असल खेल जनता को समझा कर उनका वोट हासिल करना नहीं, बल्कि जाति-बेरोज़गार हितों और राजनीतिक दलों की रणनीतियों से सत्ता बनाये रखना बन गया है। कई मतदाताओं के लिए सवाल यह है क्या कोई ऐसा सच्चा राजनीतिक दल मौजूद है जो सिर्फ़ जनता की भलाई के लिए काम करे, या सबका मकसद अपनी सत्ता और फायदे सुरक्षित रखना ही रह गया है?
नियमित वोट-बैंक राजनीति और जातिगत गणित ने लोकतंत्र के मूल सवालों को पीछे धकेल दिया है। जिस नेता या दल को मसीहा की तरह पेश किया जाता है, अक्सर वही समय आने पर अपने हितों के अनुरूप निर्णय कर लेते दिखते हैं। जनता जब जवाब मांगती है तो मुद्दों को घुमा-फिरा कर विपक्ष या किसी अन्य दल पर थोप दिया जाता है और असली जवाबदेही का सवाल हवा में तैरता रह जाता है। इससे न सिर्फ राजनीतिक भरोसा घटता है बल्कि समाज में असंतोष और राजनीतिक उदासीनता भी बढ़ती है।
विकल्प क्या है? केवल वोट देना क्या पर्याप्त है? बड़े हिस्से की जनता मानती है कि सिर्फ़ मतदान ही उनकी सियासी हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए। पारदर्शिता, लोकल-स्तर पर जवाबदेही, और रोज़मर्रा की समस्याओं, नौकरी, स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी सेवाओं पर निरन्तर दबाव बनाना भी ज़रूरी है। नागरिकों की संगठित मांगें, स्थानीय समुदायों का सक्रिय राजनीतिक संलग्न रहना और स्वतंत्र चौथाई प्रेस व नागरिक समाज का दबाव ही उन दलों को बदलने पर मजबूर कर सकता है जो केवल वोट बैंक के लिए राजनीति करते हैं।
दूसरी ओर, वास्तविक परिवर्तन के रास्ते में बड़ी चुनौतियाँ भी हैं राजनीतिक संरचना, पैसे और स्थानीय शक्तियों का नेटवर्क, और जातिगत राजनीति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि सिर्फ नाराजगी से बदलाव नहीं आता। इसलिए ज़रूरी है कि जनता छोटे-छोटे कदम उठाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करे, जागरूक मतदान के साथ साथ ईस्यू-आधारित राजनीति को बढ़ावा दें, लोकल प्रतिनिधियों से लगातार संवाद रखें और त्रुटियों को सार्वजनिक रूप से उजागर करें।
अंत में बिहार की राजनीति एक चुनौती और मौके दोनों है। अगर जनता सिर्फ वोट देने तक सीमित रहने के बजाय निरन्तर सक्रिय रहे, दलों से जवाबदेही मांगे और स्थानीय स्तर पर संगठित हो, तो वही राजनीतिक दल जो केवल अपनी सत्ता बचाने के खेल में लगे हैं, उन्हें बदलने का दबाव बन सकता है। वरना यह खेल वही चलेगा, जनता की उम्मीदों के साथ खिलवाड़ और सत्ता की राजनीति का सियासी चक्र चलता रहेगा।





