आज का परिदृश्य दर्शाता है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं के अस्तित्व के बावजूद आम नागरिक की जेब दिन-प्रतिदिन ढीली होती जा रही है, जबकि राजनीतिक नेतृत्व का वैभव और संपत्ति असामान्य रूप से बढ़ रही है। एक समय था जब उपनिवेशवादी सत्ता ने भारतवासियों को अपने अधीन कर रखा था, आज वही जनता औपचारिक रूप से स्वतंत्र है, परन्तु वास्तविक सत्ता अब राजनेताओं के हाथों में केंद्रित हो चुकी है। विकास और सुरक्षा के नाम पर किए जाने वाले वादे केवल घोषणाओं तक सीमित रह गए हैं, जबकि उनके पीछे छिपा वास्तविक उद्देश्य प्रायः व्यक्तिगत सम्पन्नता और वैभव की अभिलाषा प्रतीत होती है।
वास्तविकता यह है कि अधिकांश राजनेताओं के पास विशाल आवास, लक्ज़री वाहन और अप्रत्याशित संपत्ति का संग्रह मौजूद है, जो उनकी सेवा या जनकल्याण की कथित प्रतिबद्धता के साथ कहीं से मेल नहीं खाता। सवाल यह है कि क्या ऐसा कोई नेता है, जिसके पास व्यक्तिगत संपत्ति न्यूनतम हो और जो अपने जनसाधारण के उत्थान के लिए स्वयं को पूर्णतया समर्पित कर सके। यह विषमता केवल आर्थिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मूल्य के दृष्टिकोण से भी गंभीर चिंता का विषय है।
इस असंतुलन के पीछे समाज और राजनीतिक संरचना की जटिलताएँ स्पष्ट होती हैं। जनता ने औपचारिक आज़ादी तो प्राप्त की, परन्तु सत्ता के वास्तविक स्वामित्व ने उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से राजनेताओं के अधीन कर दिया है। अब निर्णय, नीतियाँ और संसाधनों का वितरण इस नियंत्रण के अनुरूप निर्धारित होता है। आम नागरिक की भागीदारी केवल उपभोक्ता और निरीक्षक तक सीमित रह गई है, जबकि वास्तविक शक्ति और निर्णय क्षमताएँ संकेंद्रित हो चुकी हैं।
इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और राजनीतिक जवाबदेही की वास्तविकता पर पुनर्विचार किया जाए। केवल वैचारिक स्वतंत्रता और चुनाव की प्रक्रिया पर्याप्त नहीं है; सच्ची लोकतांत्रिक सक्रियता तब संभव है जब राजनेता अपने व्यक्तिगत वैभव की आकांक्षा से ऊपर उठकर समाज और जनता की बेहतरी हेतु काम करें। तभी ही वह समाज जहां आज़ादी केवल नाममात्र की प्रतीत होती है, वहाँ वास्तविक न्याय, समरसता और आर्थिक समता सुनिश्चित की जा सकती है।





